आदिवासियों के साथ ही ऐसा क्यों?
आफरीन तारा
विगत दिनों गुमला
और
संथाल परगना
के कार्यक्रम के दौरान मुझे आदिवासियों की मूल मुद्दे को समझने का गहरा
अवसर मिला और,
इस
दौरान वहां के आदिवासियों की हालत को समझने का एक उतम मौका दिया। एशियाई
देशों में आदिवासियों के मुद्दे, अनुभव और चुनौतियां एक ही तरह के हैं। इन देशों की
सरकारें ‘विकास और आर्थिक तरक्की’ के नाम पर आदिवासियों को उनकी भूमि, भू-भाग और संसाधनों
से बेदखल कर रहे हैं। बावजूद इसके आदिवासी लोग अपने पूर्वजों की विरासत को बचाने के
लिएए अंतिम दम तक संघर्ष कर रहे हैं।
क्या प्रकृति की गोद में पैदा होना आदिवासियों
के लिए अपराध हो गया? क्या प्राकृतिक संसाधनों का सौदा नहीं करना उनके लिए भारी पड़
रहा है? और क्या उन्हें भी लालच और अन्याय पर आधारित अर्थव्यवस्था और विकास मॉडल को
अपना लेना चाहिए?
दुनियां में आदिवासियों का सबसे बड़ा
मुद्दा यह है कि विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर उनसे उनके पूर्वजों की जमीन, जंगल,
पानी, खनिज और पहाड़ छिन लिया जा रहा है, लेकिन उस तथाकथित विकास और आर्थिक तरक्की का
फायदा उन्हें नहीं मिल रहा है। वे सिर्फ विकास और आर्थिक तरक्की के शिकार हो रहे हैं।
भारत का आंकड़ा देखें तो योजना आयोग के मुताबिक देश में 6 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं,
जिनमें से मात्र 25 प्रतिशत लोगों का किसी तरह पुनर्वास किया गया है। विस्थापितों में
40 प्रतिशत लोग आदिवासी समुदाय से आते हैं, क्योंकि आदिवासी समुदाय का अर्थव्यवस्था
ही भूमि और वन पर आधारित है
आदिवासियों के भूमि संरक्षण को लेकर
अलग-अलग देशों में कानून बनाया गया है, जिसका मूल मकसद आदिवासियों को उनकी भूमि से
बेदखल होने से रोकना है। लेकिन हकीकत में गैर-कानूनी तरीके और अन्य मध्यामों का उपयोग
कर उनको उनकी भूमि से लगातार बेदखल किया जा रहा है। झारखंड का आंकड़ा बताता है कि यहां
आदिवासियों की 23 लाख एकड़ जमीन गैर-कानूनी तरीके से उनके लूट लिया गया है।
भूमि संरक्षण कानूनों में गैर-कानूनी
तरीके से हस्तांतरित भूमि की वापसी का प्रावधान होने के बावजूद आदिवासियों के हाथ से
जमीन चली जा रही है।
आदिवासियों के लिए विभिन्न देशों के
संविधानों में किया गया विशेष प्रावधान, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों और संयक्त
राष्ट् संघ द्वारा आदिवासियों के लिए किया गया घोषणा-पत्र 2007 को लगभग सभी सरकारों
ने नजरांदाज कर दिया है, क्योंकि वर्तमान बाजारू अर्थव्यवस्था और औद्योगिक विकास मॉडल
जो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर आधारित है, के रास्ते पर रूकावट आयेगी।इसी विकास
मॉडल की वजह से आदिवासियों को उनकी आजीविका के संसाधनों से लगातार बेदखल किया जा रहा
है।
सरकारी ऑंकड़ा से वन अधिकार कानून 2006 की सही तस्वीर पेश होती है। झारखंड
में 30 जून, 2013 तक 42,003 लोगों ने दावा-पत्र पेश किया था, जिसमें से सिर्फ
15,296 लोगों को 37,678.93 एकड़ से संबंधित जमीन का पट्टा दिया गया है लेकिन राज्य में
आजतक एक भी सामुदायिक अधिकार का पट्टा निर्गत नहीं हुआ है।
अंग्रेजों ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 के माध्यम से मुंडारी
खूटकट्टी जैसे सामुदायिक अधिकार को कानूनी मान्यता देकर इतिहास रचा था और यह राज्य
देश में एकमात्र आदिवासी राज्य के रूप में भी जाना जाता है। लेकिन हकीकत में झारखंड
के पड़ोसी राज्य आदिवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार देने के मामले में बहुत आगे
निकल चुके हैं।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि झारखंड सरकार आदिवासियों को वन एवं वनभूमि
पर अधिकार क्यों नहीं देना चाहती है? इस सवाल का जवाब सारंडा जंगल में बहुत असानी से
ढूंढ़ा जा सकता है, जहां देश का 25 प्रतिशत लौह-अयस्क मौजूद है। हो और मुंडा आदिवासी
लोग सारंडा जंगल में कई दशकांे से वन और वनभूमि पर अधिकार हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे
हैं और उनपर पुलिस अत्याचार जारी है। 1980 से 1958 के बीच 19 पुलिस फायरिंग की घटना
घटी, जिसमें 36 आदिवासी लोग मारे गये एवं 4100 लोगों को पेड़ काटने के आरोप में जेल
भेजा गया था। वन अधिकार कानून के तहत अधिकार हासिल करने के लिए 17000 आदिवासियों ने
दावा-पत्र भरा था, जिससे अंचल कार्यालय, मनोहरपुर से ही गायब कर दिया गया। यह इसलिए
किया गया क्योंकि सारंडा जंगल में 12 खनन कंपनियां 50 जगहों पर लौह-अयस्क का उत्खनन
कर रही हैं और उत्खनन हेतु 19 नयी माईनिंग लीज दी गई है। ऐसी स्थिति में अगर आदिवासियों
को वन एवं वनभूमि पर अधिकार दे दिया जाता है तो लौह-अयस्क का उत्खनन बड़े पैमाने पर
प्रभावित होगा।
वन अधिकार कानून 2006 लागू होने के साथ ही वन विभाग का अस्तित्व समाप्त
हो जाना चाहिए था लेकिन सरकार की मंशा साफ नहीं है। वन विभाग के अधिकारी आदिवासियों
को जंगल पर अधिकार इसलिए नहीं देना चाहते हैं क्योंकि वे टिम्बर माफिया और पोचरों से
मिलीभगतकर करोड़ो रूपये कमा रहे हैं। वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को मुफ्त
में लाखों रूपये की लकड़ी अपने घरों को सजाने के लिए मिलता है। वनभूमि या वन पर उत्खनन
करनेवाली कंपनियों से सरकार को भारी रकम राजस्व के रूप में फोरेस्ट क्लियारेंस के समय
मिलता है, जिसे सरकार किसी भी कीमत पर आदिवासियों के हाथ में जाने नहीं देना चाहती
है। असल में जंगल खनिज पदार्थों से भरे पड़े हैं इसलिए आदिवासियों को अधिकार से वंचित
रखा है।
आदिवासियों
को उनकी भूमि, भू-भाग और संसाधनों से जबरन हटाने के लिए विभिन्न सैन्य अभियान , जिनकी
आड़ में आदिवासियों को सबकुछ खोना पड़ा है। फर्जी मुठभेड़ में निर्दोष आदिवासियों की निमर्म
हत्या की गई, महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, निर्दोष आदिवासियों को यातना दी गई,
उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसाया गया और हजारों लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया
है। इनका अंतिम परिणाम यह हुआ कि आदिवासियों के आंदोलनों को कुचलकर उनकी भूमि, भू-भाग
और संसाधनों को औद्योगपतियों के हवाले कर दिया गया और सरकार इसी को विकास कहती है।
इतना ही नहीं उनके जनप्रतिनिधि भी इन गंभीर सवालों को संसद और विधानसभाओं में नहीं
उठाते हैं।
देखा जाये तो आदिवासी सलाहकार परिषद् एक संवैधानिक संस्थान है, जहां आदिवासियों
के विकास एवं कल्याण हेतु निर्णय लिया जाना है। यह संस्थान संवैधानिक रूप से विधानसभा
से भी ज्यादा शक्तिशाली हैं जहां अनुसूचित क्षेत्र के विकास एवं कल्याण हेतु सिर्फ
आदिवासी जनप्रतिनिधि निर्णय लेने के लिए बैठते हैं।
लेकिन क्या कारण है कि पिछले
13 वर्षा में इस संस्थान ने आदिवासी विकास और कल्याण को लेकर कोई एक ठोस निर्णय नहीं
ले सका है? क्यों ट्राईबल सब-प्लान के पैसे का बंदरबंट हो रहा है और कोई प्रश्न नहीं
उठता? क्या सचमुच आदिवासी नेता अपने समाज के हित की चिन्ता नहीं करते या उन्हें ऐसा
करने से रोका जाता है?
वन
अधिकार कानून 2006 : केन्द्र सरकार ने पहली बार कानूनीरूप से स्वीकार किया कि आदिवासियों के
साथ एैतिहासिक रूप से अन्याय हुआ है इसलिए कानून द्वारा उन्हें न्याय देना इसका मूल
मकसद था।
अंग्रेज जब भारत आये तो उन्हें समझ में आया कि यहां प्राकृतिक संसाधनों
का आकूत भंडार है जिसे हथियाने के साथ ही कानून को हथियार बनाकर संसाधनों पर कब्जा
करना शुरू कर दिया गया। सन् 1793 में पहली बार ‘‘परमानेंट सेटलमेंट एक्ट’’ लाया गया,
जिसने आदिवासियों की जमीन जमींदारों के हाथ में चली गई। सन् 1855 में जंगल पर भी कब्जा
करने हेतु सरकारी नीति लायी गयी। यहां तक कहा गया कि जंगल सरकार की है और उसपर कोई
व्यक्ति अपना अधिकार नहीं जता सकता है। सन् 1865 में भारत में पहला ‘‘वन अधिनियम’’
बना। उसके बाद तो मानो वन कानूनों की बारिश सी हो गई। जहां भी उन्हें कानून में छेद
दिखाई देता नये कानून लाते। वन अधिनियम 1927 द्वारा सभी तरह के वनोपज पर लगान लगा दिया
गया।
1952 में ही राष्ट्रीय वन नीति लायी गई, जिसमें आदिवासियों को जंगल उजाड़ने
हेतु दोषी ठहराया गया। 1972 में वन्यजीवन के सुरक्षा के नाम पर कानून बनायी गई और लाखों
लोगों को जंगल से हटा दिया गया। वर्ष 1976 में राष्ट्ीय कृषि आयोग ने तो यहां तक कहा
कि आदिवासी ही जंगलों को बर्बाद करते हैं इसलिए अगर जंगल बचाना है तो आदिवासियेां को
जंगलों से बाहर निकालना जरूरी है।
इस तरह से जंगल को आदिवासियों से छिन लिया गया। सन् 2002 में भारत सरकार
ने वन संरक्षण अधिनियम एवं सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को हाथियार बनाते
हुए जंगलों में रह रहे 1 करोड़ आदिवासियों को समय सीमा के अन्दर जंगलों को खाली करने
का आदेश दे दिया। इस प्रक्रिया में देश भर से 25000 आदिवासी परिवारों के घर तोड़ दिए
गए, खेतों में लहलहाते अनाज बर्बाद कर दिए गए।
असम और महाराष्ट्र में तो स्थिति यह थी कि बूल डोजर और हाथियों को इस कार्यो
में लगाया गया।
आदिवासियों
के गंभीर मुद्दे कभी भी राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बनता? झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओड़सा
में हो रहे निर्दोष आदिवासियों की निर्मम हत्या, आदिवासी बच्चियों के साथ बलात्कार
और उनकी गैर-कानूनी जमीन लूट संसद में क्यों नही गुंजती है?
प्राकृतिक संसाधनों से बेदखलीकरण, वन विभाग द्वारा
जुल्म व अत्याचार एवं राज्य प्रयोजित हिंसा ही आदिवासियों के खिलाफ एैतिहासिक अन्याय
है। इसलिए झारखंड सरकार को त्वरित कदम उठाते हुए यहां के आदिवासी को न्याय देने हेतु
वन अधिकार कानून के तहत जल्द से जल्द अधिकार देना चाहिए, जिसे सरकार के प्रति लोगों
का विश्वास बढ़ेगा क्योंकि सरकार ने आजतक वन एवं वन्यजीवन को बचाने के नाम पर आदिवासियों
के साथ अन्याय ही किया है।
इतिहास
गवाह है कि बाबा तिलका मांझी, सिदो-कन्हो, फूलो-झानो, सिंगराय-बिन्दराय, माकी-देवमणी,
बुद्धो भगत, निलंबर-पीतंबर, बिरसा मुंडा, जतरा टाना भगत जैसे सैंकड़ो क्रांतिकारी आदिवासी
नेताओं ने आजादी की लड़ाई लड़ी लेकिन इतिहास में उन्हें नाकार दिया गया।
ऐसी
स्थिति में जबतक झारखंडी लोग स्वयं झारखंड को नहीं चलायेंगे तबतक यह राज्य कभी भी आगे
नहीं बढ़ेगा क्योंकि राज्य की परिकल्पना ही उनका है।
लेकिन
क्या ऐसी स्थिति में आदिवासी समुदाय के लिए कुछ उम्मीद भी है?। बिरसा मुंडा ने कहा
था कि उलगुलान का अंत नहीं और यही उम्मीद भी है आदिवासियेां के लिए। वे चाहें या नहीं
लेकिन अगर उन्हें अपना अस्तित्व बरकरा रखना है तो संघर्ष ही उनका अंतिम रास्ता है।
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आफरीन तारा मानवाधिकार
कार्यकर्ता हैं