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My Tryst with Anthropology and Tribal Studies !!

My Tryst with the Anthropology and Tribal Studies !! in Chattisgarh ,India




























अथ हुदुड़ दुड़गम असुर हत्या कथा

दुरगी निढाल पड़ी थी. 
बाहर सूरज भी पस्त था. समंदर के अंक में सूरज निचुड़ा-निचुड़ा लग रहा था. क्षितिज पर डूबता हुआ सूरज लाल था जैसा गला घोंटने पर किसी व्यक्ति का चेहरा रक्त से भर उठता है. 
दुरगी ने आरसी में चेहरा देखा. किनारे पर ओठ कटा हुआ था. गाल पर दो दांतों से बने गड्ढे थे. उसने आरसी रख दिया और सागवान से बने प्रौष्ठ पर लेट गई. 
सूरज अब पूरी तरह से डूब चुका था. बाहर अंधेरा गहरा गया था.

‘दीदी, उठो. मौसी बुला रही है.’
हरिमा की घंटियों जैसी आवाज से दुरगी की अधनिंदी आंखों के कपाट हौले से खुले. कहीं दूर सूरज टिमटिमा रहा था. कंपकपाता हुआ. आंखें पूरी खुली तो प्रदीपक की लौ थी. हरिमा का चेहरा प्रदीपक की लौ में लप-लप नटखटा रहा था.
‘उठो दीदी. मौसी कह रही है जल्दी से तैयार होकर अभ्यागत कक्ष में पहुंचो.’
‘नहीं आती. जाओ कह दो.’ दुरगी की आंखों के कपाट पुनः बंद हो गए. 
‘मौसी नाराज हो जाएगी.’ हरिमा ने दुरगी की देह पर प्यार से हाथ रखा. ‘कोई बहुत तेजस्वी आर्य आए हैं’.
दुरगी ने उसका हाथ झटकते हुए कहा, ‘आदमी बड़ा हो या छोटा, होता तो मर्द ही है न. जाओ, कह दो आज और गणक (ग्राहक) नहीं. एक दिन में एक ही जानवर झेल सकती हूं.’
‘ओहो! दीदी. तुम भी न. बिना पूरी बात जाने. चलो जल्दी से तैयार हो जाओ. वे कोई पशु नहीं मालूम होते.’
मौसी जैसी ही हरिमा की नकली वात्सल्यपूर्ण मुखभंगिमा देख कर दुरगी हंस पड़ी. ‘तू भी न ... एकदम बच्ची है. अगले साल वसंत में मौसी तुम्हें भी हमारे जैसा बना देगी. तब समझ में आएगा कि हम जैसी स्त्रियों के पास इंसान कभी-कभार ही आते हैं.’
‘सच्ची बोलती हूं दीदी. पशु जैसे तो नहीं दिखते. मौसी उनको महाअमात्य बोल रही थी ... सच्ची!’
दुरगी ने फिर कुछ नहीं पूछा. क्षण भर कुछ सोचा. फिर उठकर खड़ी हो गयी. हरिमा को दुलराते हुए जाने का संकेत कर बोली, ‘आती हूं ... तू जा.’

दुरगी जब गणिकालय के उस बड़े विलासी अभ्यागत कक्ष में, जो विशेष अतिथियों के लिए ही प्रयुक्त होता था, पहुंची तो देखा महाअमात्य गंभीर मुद्रा में आंखें मूंदे बैठे थे. मौसी की नजरें महाअमात्य के गले में पड़ी मोतियों की माला पर एकटक गड़ी थी. जिसमें हीरे का एक बड़ा टुकड़ा उनकी समृद्धि की आभा बिखेर रहा था. 
‘प्रणाम करती हूं आर्य.’ दुरगी ने करबद्ध होकर कहा और मौसी के बगल में जाकर खड़ी हो गयी. 
महाअमात्य ने शहद स्वर संरक्षिता देह पर नजरें डालीं. अपूर्व! सुनानेवाले से कहीं ज्यादा रूप, लावण्य. बेमिसाल और हत्यारा सौंदर्य! उस रूप के आनंद से उनकी आंखें मुंद गयी. उनके दिल की गहराइयों से शब्द बाहर आए, ‘आयुष्यवती रहो. दिग-दिगंतर तक तुम्हारे रूप और साहसी सौंदर्य गाथा का गान हो.’
मौसी को आयुष्यवती तो समझ में आया पर आगे की पंक्तियों का आशय नहीं पकड़ सकी. दुरगी लेकिन इस आशीर्वचन से भीतर तक सिहर गयी. वह समझ गयी महाअमात्य देह क्षुधा के लिए नहीं आए हैं. उनका प्रयोजन कुछ और है.
‘... तो आज्ञा करें महाअमात्य. उषाकाल तक की व्यवस्था चाहेंगे न ...?’ मौसी की आंखें अब भी हीरे पर गड़ी हुई थी. 
‘हम क्या चाहते हैं यह तुम नहीं समझ सकोगी पुतुलिका. तुम्हारी आपणिक (बाजारी) दृष्टि अत्यंत क्षीण है. ... परंतु निश्चिंत रहो. हम तुम्हें इस लोक की सबसे समृद्ध स्त्री बना देंगे. अभी तुम कक्ष से बाहर जाओ. मैं इस देवी के साथ कुछ एकांत चाहता हूं.’ महाअमात्य ने लगभग आदेश के स्वर में अपनी मंशा साफ कर दी.
‘बच्ची है आर्य. हमारे बिना असहज हो जाएगी.’ मौसी पुतुलिका ने बहुत विनम्रता से वहां मौजूद रहने की आज्ञा मांगी.
महाअमात्य को पुतुलिका की आंखों में हीरे की चमक साफ दिख रही थी. ‘तुम जो चाहोगी पूरा होगा. उम्मीद से ज्यादा. जाओ ... हमारे पास बहुत कम अवधि है. और ध्यान रहे ... हमारी इस मुलाकात की सूचना इस गणिकागृह से बाहर ना जाए.’
मौसी समझ गयी उसे जाना ही होगा. वह कक्ष से बाहर निकल गयी.
‘मैं तुम्हारी देह का आकांक्षी नहीं हूं देवी. तुम्हारे सौंदर्य और गुणों का आग्रही हूं.’ भेद का वातावरण रचते हुए महाअमात्य ने बात शुरू की. ‘बहुत सुना था तुम्हारे बारे में. पर सुनने और प्रत्यक्ष बोध में जो अंतर होता है. तुम्हें देखकर उसे अच्छी तरह से अनुभव कर रहा हूं.’
‘आज्ञा करें ... मैं तो आपकी दासी हूं.’
‘आज्ञा न कहो देवी. अंग देश का यह महाअमात्य तुम्हारे पास ... एक गणिका के द्वार पर निवेदन करने आया है. याचक बन कर उपस्थित हुआ हूं.’
‘मुझे लज्जित न करें आर्य.’ 
‘लज्जित तो हम हैं देवी. जो तुम जैसी वीरांगनाओं को ऐसे अनचाहे और निरर्थक कार्य-व्यापार में अपना समस्त जीवन नष्ट करना पड़ता है.’
‘यह तो अपना-अपना भाग्य है ...’
‘हां, भाग्य है ... पर मनुष्य वही है जो अपने भाग्य से परास्त न हो.’
‘मैं ठहरी एक गणिका. इतनी गूढ़ बातें समझ नहीं पाती. आप तो आदेश करें ... सेविका प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करेगी.’
‘देश को तुम्हारी आवश्यकता है देवी. एक अतिविशिष्ट प्रयोजन हेतु तुम्हारा सहयोग अपेक्षित है.’
‘मैं एक पातक. स्त्रियों में सबसे हेय. भला देह के अतिरिक्त हमारे पास है ही क्या. और यह देह तो सदैव हर किसी के लिए सुलभ है आर्य. बस आप आज्ञा करें ...’
‘पुनः कहूंगा. आज्ञा नहीं, निवेदन. पर हमारे निवेदन के लिए यह उचित जगह नहीं है. अच्छा होगा देवी कि अगली तृतीया को हमारे यहां आने का आमंत्रण स्वीकार करो.’
‘जी ... स्वीकार है ... पर मौसी से ...’
‘पुतुलिका की चिंता तुम मत करो. मैं उससे कह दूंगा.’
‘जी आर्य.’
‘याद रहे देवी. अगली तृतीया को. पूर्ण रात्रि के लिए.’
इसके बाद और कुछ कहे बिना महाअमात्य कक्ष से बाहर निकल गये. 

महाअमात्य तो चले गये. लेकिन उनका ‘निवेदन’ पुतुलिका के पूरे गणिकागृह में पहेली बनकर लोगों के साथ उलझ गया. हर कोई जिसे अपने-अपने ढंग से सुलझाने की कोशिश कर रहा था. पर लाख माथा मारने के पश्चात भी निवेदन का सही अर्थ समझ पाने में सबके सब असमर्थ थे.

वह कुंबा जंगल के आखिरी छोर की एक बुरू (पहाड़) पर था. कुंबा से जंगल का अंतिम सिरा साफ-साफ दिखता था. जंगल के खत्म होते ही नदी थी. नदी के दूसरी ओर पेड़ों के कुछ झुरमुट थे. फिर दूर तक सपाट घास का मैदान. उसके आगे कुंबा से कुछ नहीं दिख पाता था. घने शालवन और घास के मैदान के बीच यह नदी ही विभाजक रेखा थी. 

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कुंबा में उस वक्त दो नौजवान थे. बलिष्ठ देह थी उनकी. उम्र यही कोई 20-22 साल की होगी. रंग तांबई. उन दोनों की देह पर वस्त्र के नाम पर सिर्फ ‘पंची’ (कमर के नीचे ढंकनेवाला कपड़ा) थी. शक्ल-सूरत से वे नगरीय समाज के नहीं मालूम होते थे. कुंबा के भीतर सामान के नाम पर पानी से भरा एक छिली (घड़ा), दो धनुष, कुछ तीर, एक टामाक, पुआल से बने तीन-चार गिुडुवार (ढेलफांस) और नदी से लाये गये ढेर सारे छोटे-छोटे गोल-मटोल पत्थर थे. एक युवक जिसका नाम सांगी था, वह पुआल की बिस्तर पर लेटा था. जबकि दूसरा, जिसका नाम चुंडा था वह कुंबा के दरवाजे के पास एक छोटे पत्थर पर ‘बारङ’ (तीर का अग्र भाग) को घिस-घिस कर धार दे रहा था. 

‘तुम कभी नदी के उस पार गये हो?’ सांगी ने लेटे-लेटे पूछा.
‘कहां ... उधर ‘जुबदी’ (प्रतिबंधित क्षेत्र) की ओर?’
‘हां ...’
‘नहीं. ... उधर जाना मना है.’
‘बड़ा बाबा बोलते हैं उधर ... जुबदी में भी होड़ लोग रहते हैं.’
‘हां ... हैं तो.’
‘लेकिन वो लोग हमारे जैसे नहीं हैं.’
‘हूं ...’
‘बड़ा बाबा बोलते हैं मैदान के बीस बुरु (20 पहाड़) आगे एक बहुत बड़ी नदी है.’
‘.........’
‘पहले उधर कोई नहीं रहता था. न होड़ न जिजियाली (पशु). बड़ा बाबा कहते हैं जाने कहां से बहुत लोग उधर आ गए. उनके पास ढेर सारे जिजियाली हैं. वे बिर (जंगल) जला देते हैं और हम होड़ लोगों को भी जिजियाली बोलते हैं.’
‘तुम्हारे बड़ा बाबा को ये सब कैसे पता? क्या वह उधर गया है कभी. हमने तो सुना है कि उधर जो भी जाता है, वह फिर कभी लौट कर नहीं आता.’
‘नहीं, बड़ा बाबा कभी नहीं गया. लेकिन उसको मालूम है. ... अच्छा, तुमने कभी असब (अश्व) देखा है?’
‘नहीं. सुनते हैं ऐसा जिजियाली उन्हीं लोगों के पास है.’
‘हम जब मुर्गी जितना छोटा थे तो वे लोग बहुत सारे असबों पर बैठकर हमारे बिर (जंगल) में घुस आए थे. बहुत मारकाट मचायी थी. हमारे बहुत सारे होड़ लोगों को मेंड़हेद सिकड़ी (लोहे की जंजीर) में बांधकर ले गए थे. तभी से ‘दिसोम पड़हा-पंचाइत’ (आदिवासियों की सर्वोच्च राजनीतिक संस्था) ने यहां ये कुंबा बनाया. ताकि जुबदी पर नजर रखी जा सके.’
‘पहले कितना अच्छा था. होड़, जिजियाली, पंछी और जंगल. सब खुश-खुश. लेकिन जबसे असब वाला होड़ लोग बड़ी नदी के किनारे आकर बस गये ... सब खुशी चला गया.’ चुंडा ने आखिरी अपांडी को धार देने का काम खत्म करते हुए इत्मीनान की सांस ली.
‘हम होड़ लोग तो उधर नहीं जाते ... फिर वे लोग इधर क्यों आते हैं?’
‘इसके बारे में परगनैत ही बता सकता है. मांझी हाड़ाम को भी सबकुछ पता है. हम तो बस इतना जानते हैं कि वो लोग अच्छा होड़ नहीं है. होड़ को जिजियाली माननेवाला लोग कैसे ठीक हो सकता है. बोलो?’
‘बाबा बोल रहा था कि उसके बाद दो बार और भी वो लोग आये थे. लेकिन दिसोम का सभी होड़ लोग मिलकर उनको नदी ही पार करने नहीं दिया था.’
‘हां, कुंबा बनाने के कारण ही हमलोग अपना बचाव कर पाए.’
‘तुमको क्या लगता है. वे लोग फिर कोशिश करेंगे इधर आने की ...?’
‘कर ही सकते हैं. वो सभी बड़िच् (बिगड़ैल पशु) जैसे हैं. होड़ होते तो ऐसा थोड़े करते न.’
‘हां. दुड़गम दिसोम परगनैत (दुड़गम-आदिवासियों का प्रधान सरदार) के रहते कोई बड़िच् हमलोगों को नुकसान नहीं पहुंचा सकता.’
‘हम सिंङबोंगा के आभारी हैं जो उसने दुड़गम होड़ जैसा दिसोम परगनैत दिया.’
‘उसके रहते चाय-चम्पा दिसोम को कोई जिजियाली की तरह बाड़े में बांधने की हिम्मत नहीं कर सकता.’
‘सही कहा तुमने. अब भूख लग रही है. कुछ खाने का लेकर आऊं क्या?’
‘भूख तो हमको भी लग रही है ... ’
‘अच्छा तो हम कुछ लेकर आते हैं.’
‘ठीक है ... जाओ.’
चंुडा ने एक निगाह नदी के पार मैदान पर डाली और बुरु से उतर कर बिर में समा गया.

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दुरगी कोई सामान्य गणिका नहीं थी. वह उत्तम श्रेणी की गणिका थी. पुतुलिका के गणिकागृह की ख्याति उसी के कारण अंग देश में व्याप्त थी. यूं तो पुतुलिका के गणिकागृह में तीन दर्जन से अधिक गणिकाएं थीं. पर अधिकांश गणिकाएं कनिष्ठ श्रेणी की ही थीं. महज एक हजार पण मासिक पारिश्रमिक पाने वाली. नगर के गणिकाध्यक्ष ने वहां की चार गणिकाओं को मध्यम श्रेणी में रखा था. मध्यम गणिकाएं दो हजार पण मासिक पर गणिकावृत्ति करती थीं. नगर में पुतुलिका के अलावा और पांच गणिकागृह थे. अंग देश का केंद्रिय नगर होने के कारण ये सभी गणिकागृह हमेशा श्रेष्ठि जनों, सैनिकों और बाहर से आने वाले वणिकों से आबाद रहते. पुतुलिका जैसी गणिका स्वामिनों को इससे अच्छी-खासी आय होती थी और वे गणिकावृत्ति के कर के रूप में नगर के गणिकाध्यक्ष को हर माह उल्लेखनीय भोगधन चुकाती थीं. आय की दृष्टि से पुतुलिका की स्थिति सबसे अच्छी थी. क्योंकि उसी के पास चार मध्यम और एक उत्तम यानी दुरगी जैसी गणिका थी. उस काल में उत्तम गणिकाओं को मासिक तीन हजार पण मिलता था.

पुतुलिका का गणिकागृह था भी समंदर के किनारे. सुंदर उपवन के बीच. उपवन के खत्म होते ही समंदर का खुला और विशाल रेतिला तट. देह विलासियों के लिए यह प्राकृतिक मनोरम माहौल दूसरे गणिकागृहों की बजाय ज्यादा भाता था. 

दुरगी किसकी संतान थी. वह किस परिवार और वर्ण की थी यह कोई नहीं जानता था. स्वयं दुरगी को अपने माता-पिता के बारे में कुछ नहीं मालूम था. कोई गणक कभी उससे उसके परिवार के बारे में जानना चाहता तो हंसते हुए वह कहती, ‘मेरे देह के सिवा और कोई मेरा नहीं. वैसे भी स्त्री अपने जनक नहीं, देह से या फिर देह के स्वामी से जानी जाती है आर्य.’ 

पर आज का वार दुरगी के लिए खास था. तृतीया के इस दिन की वह अत्यंत व्यग्रता के साथ प्रतीक्षा कर रही थी. वह उत्सुक थी महाअमात्य के प्रयोजन को जानने के लिए. जबकि उसकी स्वामिनी मौसी पुतुलिका मोटी आय की आशा से उत्साहित थी. संध्या के मटमैले धुंधलके में अश्वप्रवहन (घोड़ागाड़ी) में उसे बिठाते हुए पुतुलिका ने स्नेह से उसकी ललाट को चूमा और आशीष देकर विदा किया.

महाअमात्य का प्रासाद अत्यंत कलात्मक और बहुत विशाल परिसर में निर्मित था. बड़े-बड़े चौरस शिलाखण्डों से बना हुआ. दरवाजे और गवाक्ष सागवान के थे. जिस स्त्री ने वाहन से उतरते ही उसका स्वागत किया, वह शायद परिचारिका थी. दुरगी को वह परिचारिका प्रासाद के एक सुसज्जित कक्ष में ले गयी और ससम्मान प्रौष्ठ पर बिठाकर चली गयी. कुछ पल बाद एक दूसरी परिचारिका आयी और द्राक्षासव भरा गिलास उसके सामने रखते हुए बोली, ‘महाअमात्य संध्या की आरती के बाद आपसे मिलेंगे. तब तक आप विश्राम करें और कोई जरूरत हो तो मुझे आवाज दें. मेरा नाम इंदुमति है.’
‘क्या आर्य यहां अकेले रहते हैं?’ द्राक्षासव का घूंट भरते उसने पूछा.
‘नहीं. वे तीन स्त्रियों के स्वामी हैं. चार पुत्र हैं और दो पुत्रियां हैं. पुत्रियां विवाहित हैं और श्वसुरालय में रहती हैं.’
‘तीन स्त्रियां! ... क्या सभी यहीं रहती हैं ... एक साथ?’
‘हां ...’
दुरगी चुप हो गई. परिचारिका कोई और उत्सुकता नहीं जान कक्ष से बाहर चली गयी.

रात का पहला पहर बीत चुका था. दुरगी ने गवाक्ष से बाहर देखा. चांद तारों के बीच इठला रहा था. तारों को देखते हुए दुरगी ने अंदाज लगाया महाअमात्य का आवास नगर के उत्तर दिशा में अवस्थित है. वह पुनः आकर प्रौष्ठ पर लेट गयी. तभी महाअमात्य की आवाज सुनायी दी, ‘देवी, निवेदन के लिए प्रस्तुत हूं.’
दुरगी अपना अधिवास सहेजते उठी और सम्मान से बोली, ‘आर्य आ जाएं. सेविका आज की पूर्ण रात्रि आपकी संपत्ति है. वह निवेदन सुनने नहीं आज्ञा पालन करने आयी है.’
महाअमात्य कक्ष में आकर प्रौष्ठ के सामने रखी आसंदी (कुर्सी) पर बैठ गए.
क्षण भर की निस्तब्धता के बाद कक्ष में धीर-गंभीर ध्वनि सुनायी दी, ‘देवी, आप उत्तम श्रेणी की गणिका हैं. सर्वगुण संपन्न. चौंसठ कलाओं में निष्णात. आप के सौंदर्य और बुद्धिमता पर समस्त अंग गर्व करता है. परंतु आज मैं एक विशेष प्रयोजन से आपसे संबोधित हूं. आप को पता ही होगा भद्रे. अंग लगातार असुर जनों से आक्रांत है. उनके कारण हम वनों में प्रवेश नहीं कर पा रहे हैं और इसके कारण नगर व राज्यों की आर्थिक सूरत लगातार दयनीय होती जा रही है. हम पुलों और प्रासादों का जिर्णोंद्धार काष्ठ के अभाव में पूरा नहीं कर पा रहे हैं. वनों से प्राप्त होनेवाली सभी वस्तुओं की तंगी हो गई है. इससे बाजार का संतुलन बिगड़ गया है और अंग देश को भारी क्षति उठानी पड़ रही है. यही स्थिति अंग से इतर अन्य आर्य कुलों की भी है.’
‘आपकी ये सब बाते मेरी समझ से परे है आर्य. बस इतना जान पा रही हूं कि असुर जनों के कारण ...’
‘मुझे ज्ञात है देवी कि तुम्हें असुर संस्कृति के बारे में पता है. यह भी पता है कि उत्तम गणिका होने के कारण कई सारी भाषाओं का ज्ञान है. संभवतः असुर भाषा का भी. इसीलिए तो तुम्हें अपनी इस चिंता में शामिल करने के लिए चयनित किया है.’
‘हां, अधिक तो नहीं बस सामान्य ज्ञान है.’
‘ठीक कहा तुमने ... परंतु भद्रे. मैं जिस चिंता की ओर तुम्हारा ध्यान आकृष्ट करना चाह रहा हूं. वह सामान्य बात नहीं है.’
‘कुछ-कुछ अनुमान कर पा रही हूं आर्य.’
‘तुम्हारा अनुमान सत्योन्मुख है भद्रे. असुरों के कारण हम अरण्य क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित नहीं कर पा रहे हैं. इससे अंग का आर्थिक विकास अवरोधित है. आर्थिक अवरूद्धता हमारे देश, कुल समाज के लिए अत्यंत घातक है. किंतु यह प्रश्न नितांत आर्थिक नहीं है. वे यज्ञ विरोधी हैं. उनका यज्ञ विरोधी दर्शन आर्य दर्शन-संस्कृति के लिए एक भयावह चुनौती है. जब तक असुर दर्शन है, अरण्य संस्कृति है, हमारा वर्तमान और भविष्य दोनों खतरे में है. संपूर्ण अंग देश और हमारी आर्य नस्ल के लिए यह खतरा अत्यंत चिंतनीय है देवी.’
‘आप सही कह रहे हैं आर्य. पर मैं भला एक गणिका, देश के इतने महत्वपूर्ण राजनीतिक-आर्थिक संकट में क्या योगदान दे सकती हूं.’ दुरगी अभी भी उनके प्रयोजन का सटीक अर्थ लगा पाने में असहाय थी.
‘आशा की एकमात्र किरण अब तुम्हीं हो देवी. जो कार्य करने में अंग देश की संपूर्ण सेना विफल रही, उसे तुम पूरा कर सकती हो. तुममें ही वो सामर्थ्य है.’ महाअमात्य के शब्द विश्वास से भरे थे. ‘यह देश और इसकी सेना, हमारे वीरों, गुप्तचरों आदि ने सभी यत्न कर लिए ... लेकिन ...’ एक गहरी सांस भरकर महाअमात्य निःशब्द हो गये.
‘साफ-साफ कहें आर्य ... ’ दुरगी व्यग्र हो उठी.
‘पहले संकल्प करो यहां जो भी बात हो रही है, उसे हम दोनों के अलावा और कोई न जान सकेगा.’ महाअमात्य अब शायद रहस्य को भेदने जा रहे थे.
‘आर्य. आप निश्चिंत रहें. संकल्प करती हूं ... गणिकाओं के वक्ष से राज कभी बाहर नहीं आते.’
‘ध्यान रहे देवी. मैं जो निवेदन उपस्थित करने जा रहा हूं उस पर समस्त आर्य नस्ल का अस्तित्व निर्भर है. और यह भी कि इस निवेदन के बाद या तो हमसब साथ-साथ जियेंगे या फिर हमसब तुम्हारे बिना ... जब तक संभव हो सकेगा जीने का प्रयत्न करेंगे. हां, पर विश्वास दिलाता हूं कि यदि हम साथ जीवित रहे तो हर अमात्य तुम्हारा ही नहीं, अंग देश के सभी गणिकाओं के द्वार का याचक बना रहेगा ... युग-युगांतर तक. जब तक ये सृष्टि रहेगी ...’
दुरगी सन्न रह गई. महाअमात्य उसकी श्रीवृद्धि की बात कर रहे हैं या मृत्युदण्ड की घोषणा!
‘अब आप विश्राम करें. मेरे निवेदन पर विचार करने के लिए आपके पास पूर्ण रात्रि है. मैं ब्राह्म मुहुर्त में उपस्थित होऊंगा. विश्वास है इस पुनीत कार्य में आपके द्वारा सहयोग का स्वर ही ध्वनित होगा. कल का सूर्योदय समस्त आर्य जाति के लिए एक नवीन जीवन और इतिहास का संदेश लेकर आएगा.’
महाअमात्य चले गए. कक्ष में उनकी आवाज अब भी गूंज रही थी ‘हमसब साथ-साथ जियेंगे या फिर हमसब तुम्हारे बिना ...’
दुरगी निस्तेज प्रौष्ठ पर बिखर गयी. मानो सैंकड़ों पुरुषों ने एक साथ ही उसकी देह कुचल दी हो.

जब दुरगी को लेकर महाअमात्य का अश्वप्रवहन गणिकागृह पहुंचा तो सूरज पूरी तरह से नहीं निकला था. मरे-मरे कदमों से चलकर दुरगी अपने कक्ष में पहुंची और प्रौष्ठ पर गिर पड़ी. कक्ष तक पहुंचने के दौरान कई गणिकाओं ने उसे देखा पर किसी ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया. गणिकाओं के लिए यह सामान्य बात थी. रात बिताने के बाद गणिकाएं इसी तरह से मृत-मृत लौटा करती थीं. 

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उस विशाल और घने बड़ पेड़ के नीचे पूरा हातु (गांव) जमा था. बच्चे, बड़े-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी. वहां जुटे लोगों की संख्या से मालूम हो रहा है कि एक नहीं कई हातु के लोग हैं वहां. 

जान गुरु (असुरों का ओझा) ने अपने लंबे घुंघराले लटों को चेहरे के सामने से हटाकर कहना शुरु किया, ‘जोहार (नमस्कार) मरांग बुरु (सर्वोच्च आराध्य पर्वत), जोहार. 
हिहिड़ी-पिपिड़ी रे बोन जोनोम लेन,
खोज-कामान रे बोन खोज लेन,
हाराता रे बोन हारा लेन,
सासाङ बेड़ा रे बोन ज़ातेन हो.
हिहिड़ी-पिपिड़ी में हमलोगों की सृष्टि हुई, खोज-कमान में हमलोगों ने एक दूसरे की खोज खबर ली थी, हाराता की ओर हमलोग बढ़े, हम लगातार बढ़ते गए. सासाङ बेड़ा में हमने गोत का विभाजन किया. 
हे मराङ बुरु तुमने हमको संदेश दिया है. वो संदेश सुनने के लिए तुम्हारे सारे बच्चे यहां जमा हुए हैं. चाय-चम्पा को तुमने सिरजा. लेकिन इसको बचाने का दायित्व हम सब पर है. हम इसे अच्छी तरह से जानते हैं. सुनो-सुनो मरांग बुरु बोलते हैं जल्दी एक बड़ी विपत्ति हम पर आनेवाली है. कोई बड़ी विपत्ति!’
‘कैसी विपत्ति?’ मांझी हाड़ाम (गांव का मुखिया) ने पूछा.
‘बड़ी विपत्ति ... बिर जल जाएंगे. नदियां सूख जाएंगी. फल-फूल पेड़ पर ही नष्ट हो जाएंगे. आयो होड़ (औरतों) का गर्भ गिर जाएगा ... चारों ओर बस भयानक अंधकार होगा.’
जान गुरु की यह बात सुनते ही वहां जमा सभी लोग भय से धरती पर लेट कर प्रार्थनावत हो गए. उनके मुख्य सरदार दुड़गम ने लोगों को इस तरह से भयभीत होते देखा तो वह उठ खड़ा हुआ.
‘जोहार मरांग बुरु. जोहार चाय-चम्पा के सभी हाड़ाम. जान गुरु ने हमें आनेवाली विपत्ति से आगाह किया है. विपत्ति अभी आयी नहीं है. मरांग बुरु के सहयोग से अभी तक हम सभी खुशी-खुशी जीवित हैं. आगे भी रहेंगे. तुमलोग डरो नहीं.’
‘दुड़गम, तुम्हारे जैसे दिसोम परगनैत के रहते चाय-चम्पा को किस बात का डर?’ मांझी हाड़ाम बोला. ‘लेकिन जान गुरु का अंदेसा अगर सच है तो हमें बहुत बड़ी तैयारी करनी होगी.’
‘हमारे लड़ाके तैयार है मांझी.’ जोग मांझी ने, जो गांव के नौजवानों का पारंपरिक सरदार था, तपाक से बोला.
‘पर जान गुरु का इशारा युद्ध का नहीं है दुड़गम. उसका मतलब शायद किसी और तरह का है ... अब तक के अनुभवों से शायद बिल्कुल अलग ... क्यों जान गुरु?’ मांझी एरा (मांझी हाड़ाम की पत्नी) ने जानगुरु के आशय को स्पष्ट करने की कोशिश की.
जान गुरु ने हां में सिर हिलाया.
सभी को आशवस्त करते हुए दुड़गम ने कहा, ‘धरती की चाल मरांग बुरु ही जाने. पहाड़ों-नदियों का दुरंङ (गीत) वही गाता है और उनके गुस्से को भी वहीं उकसाता और शांत करता है. हम होड़ जनों का उस पर कोई वश नहीं. लेकिन जहां तक चरका होड़ कुल की बात है तो उसके लिए हमारे लोग हमेशा पूरी तरह से होशियार हैं. दो बार पिटकर भागने के बाद जुबदी क्षेत्र के लोग अब आने का हिम्मत नहीं करेगा. नदी पर हमारे पहरेदार दिन-रात की खबर रखते हैं.’
‘दुड़गम, तुम्हारे अगुवाइ पर हम सबको भरोसा है.’ जोग मांझी ने जोश में मुठ्ठियां लहरायी. 
पर क्यों नहीं अगली पूर्णिमा को मरांग बुरु पर सभी लोग जमा होकर उसके साथ नाचे-गाएं. उसे खुश रखें. जिससे कि बिर, पशु-पंछी, नदी, टोंगरा, बुरु और पझरा ... सब खुश रहें.’ मांझी एरा ने आसन्न विपत्ति को टालने के लिए परंपरागत अराधना की बात सुझायी.
दुड़गम ने मांझी एरा की बात का समर्थन किया, ‘मांझी एरा ठीक बोलती है.’
तब जान गुरु ने उद्घोषणा की, ‘पूर्णिमा के दिन ... मरांग बुरु पर सभी लोगों का जुटान हो ... जोहार. जोहार मरांग बुरु.’

होड़ जुटान बिखर गयी. बस अगुआ किस्म के लोग उस पेड़ के नीचे बचे रह गए. जिसे वे अखड़ा (गांव का सार्वजनिक सामाजिक विमर्श एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का स्थान) कहते थे.

‘हम सभी को बहुत सावधान रहना होगा.’ मांझी हाड़ाम ने कहा.
‘हां ...’ दुड़गम कुछ सोचते हुए बोला.
‘खास करके तुमको’
‘मुझे अपनी नहीं ... चाय-चम्पा के सभी होड़ जनों की चिंता है.’
मांझी एरा ने आदर और स्नेह से दुड़गम को देखते हुए कहा, ‘पर हमलोगों को तुम्हारी ... तुम हम सबके अगुआ हो.’

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शरद के दिन थे. सुबह-सुबह की बेला थी. पुतुलिका के गणिकागृह में आम दिनों का ही माहौल था. सुबह से अब तक चार गणक आ चुके थे. पुतुलिका अपने निश्चित स्थान और आसन पर बैठी गवाक्ष से सड़क पर आंखें गड़ाये बैठी थी. क्षणांश भीतर ही एक शानदार सुसज्जित रथ उसने सामने रूकता देखा. वह मन ही मन पुलकित हुई. पांचवां गणक है शायद. मालदार भी दिख रहा है. उसने ऊपरी अधिवास को थोड़ा ढरका लिया. जिससे वक्ष आधा से अधिक दिखने लगा. यूं तो पुतुलिका की उम्र पचास से ऊपर की थी. पर देहयष्टि कसी हुई थी और वक्षों का सुडौलपन पुरुषों को आकर्षित करने में पूर्णतया सक्षम था.

कुछ पल में ही उसका पांचवा गणक सामने था. गणक ने आदर से अभिवादन किया और बोला, ‘मैं मगध का श्रेष्ठी हूं. चार सप्ताह के लिए अंग आया हूं. सुना है आपके यहां उत्तम श्रेणी की एक गणिका है. क्या मैं जब तक यहां हूं उसका साहचर्य पा सकूंगा?’
पुतुलिका का चेहरा मलिन हो गया. स्वयं को तुरंत संभालते हुए वणिक कुशलता से मुस्करायी और बोली, ‘आर्य यहां एक से एक गणिकाएं हैं. आप शायद दुरगी की बात कर रहे हैं. निराश होंगे ... पर दुरगी ने अब गणिकावृत्ति त्याग दिया है ...’
श्रेष्ठी कुछ पल चुप रहा. फिर बोला, ‘कोई बात नहीं. अगर उसी जैसी कोई दूसरी हो तो ...?’
‘हां-हां, कई हैं. हमारे पास स्त्री रत्नों का अभाव नहीं है श्रेष्ठि.’
‘वैसे अब पूछने का कोई अर्थ तो नहीं है. बहुत नाम सुना था दुरगी का ... क्या जान सकता हूं गणिकावृत्ति त्यागने के बाद अब भद्रे क्या करती है?’
‘यह तो हमें नहीं पता ... पर अब वह गणिका संसार के लिए मृतसमान है. कोई नहीं जानता वह कहां है और क्या करती है. जीवित भी है या ...’ पुतुलिका का स्वर अंत में अवसादपूर्ण हो गया था.
गणक ने तत्काल बात परिवर्तित कर दी, ‘ठीक है. कृपया मुझे कक्ष बताएं ...?’
पुतुलिका ने भीतर की ओर मुंह कर आवाज लगायी. 

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दोपहर का समय था. समूचा जंगल शरद के बावजूद तीखी धूप से कुम्हलाया हुआ था. चंुडा कुंबा में बैठा एकटक नदी की ओर आंख गड़ाये हुए था. सबकुछ शांत-शांत था. नदी ठंढ से सिकुड़ी हुई मालूम हो रही थी. तभी उसे किसी के कदमों की आवाज सुनाई दी. सांगी के पैरों की आवाज थी. उसने निश्चिंत होकर आंखें बंद कर ली. 
‘अंदर ही रहोगे या बाहर आकर मदद भी करोगे?’ चंुडा को सांगी की झुंझलायी और हांफती हुई आवाज सुनने को मिली.
‘एक सुकरी (सूअर) लाने में ही पस्त हो गए?’ चंुडा ने आंखें बंद किए हुए ही जवाब दिया. ‘बड़ा बोलते थे कि हाथी को लेकर भी सात जंगल दौड़ सकते हो ... बस एक सुकरी उठाने में ही ...’
‘बाहर तो आओ ... सुकरी नहीं सुकरी एङा (सुअरनी) है.’
‘सुकरी एङा है ... उसे तो और भी हल्का होना चाहिए ...’ हंसते हुए चंुडा ने आंखे खोल कर बाहर देखा. ये कैसी सुकरी एङा है! उसका मुंह खुला का खुला रह गया. बंदर सी चीख निकल गयी. वह चीते-सी फुर्ती से बाहर आया और सांगी के कंधों पर मृतवत पड़ी आयो होड़ को अपनी मजबूत बांहों में तुरंत थाम लिया. फिर दोनों सावधानी से लेकर उसे कुंबा के भीतर आ गए. चंुडा की आंखें अब भी फटी हुई थी. 
‘सब बताता हूं. थोड़ा सथा तो लेने दो.’ सांगी ने उसके सवालों को समझते हुए कहा.

दुड़गम और जोग मांझी उस समय लड़ाकों को गीतिओड़ा (युवागृह) के नजदीक खूंखार बड़िच् (पशुओं) को वश करने की तरकीब सीखा रहे थे. तभी गोड़ेत (संदेशवाहक) और मांझी हाड़ाम नायके (गांव का आध्यात्मिक प्रमुख) के साथ वहां पहुंचे. सभी चिंतित लग रहे थे.
पास पहुंचते ही मांझी हाड़ाम ने दुड़गम से कहा, ‘नदी से खबर आयी है.’ 
‘बोलो’ दुड़गम ने प्रशिक्षुओं को विश्राम का संकेत करते हुए एक बडी चट्टान पर बैठते हुए कहा.
‘खबर अच्छी नहीं है.’ नायके ने सूचना की गंभीरता पर जोर दिया.
दुड़गम ने चट्टान पर रखे महुआ भरा टुकुच् (घड़े जैसा पात्र) उठाया और कुछ घूंट भरकर उसे वापस रख कर बोला, ‘बताओ? क्या खबर है?’ उसकी देह तनने लगी थी.
मांझी हाड़ाम ने गोड़ेत की ओर देखा. इशारा पाकर गोड़ेत बोला, ‘‘सांगी और चंुडा को एक अचेत होड़ मिला है नदी में.’ 
‘हमारे गोत का है?’
‘नहीं.’
‘फिर ...?’ सवाल जोग मांझी ने किया. 
‘चरका होड़ (सफेद आदमी) है.’ 
‘हथियार भी मिला है क्या?’ इस बार भी जोग मांझी ने ही पूछा था.
‘नहीं. वो एक आयो होड़ (स्त्री) है.’
‘आयो होड़! ... जिंदा है?’ 
‘हां.’
‘ठीक है. उसे नदी के पार पहुंचा देने कहो.’ सबकी बातें चुपचाप सुन रहे दुड़गम ने निर्णायक स्वर में कहा.
‘वह जाने को तैयार नहीं. कहती है उसके कुलवाले उसे मार देंगे.’
‘पर हम उसे आसरा नहीं दे सकते.’ मांझी हाड़ाम ने आपत्ति की.
तब बेबसी से जोग मांझी बोला, ‘सही है. पर आयो होड़ है. हम उसे मार भी नहीं सकते.’ 
‘तो तुमही बोलो. क्या करना चाहिए.’ दुड़गम ने मांझी हाड़ाम से जानना चाहा.
सभी चुप हो गये. किसी को नहीं सूझ रहा था कि उस आयो होड़ के साथ क्या बरताव किया जाए. तब दुड़गम ने कहा, ‘ठीक है. उसे लाने की व्यवस्था करो. और टामाक (सूचना देनेवाली डुगडुगी) बजवा दो. हम सभी मिलकर उसके बारे में विचार करेंगे.’ 
‘उसे यहां हातु में लाना ठीक होगा?’ मांझी हाड़ाम ने अपनी अनिच्छा व्यक्त की. ‘अच्छा होता कि हम कुछ लोग चलकर वहीं उसका फैसला कर आते.’
‘नहीं. ये ठीक नहीं है. उसका फैसला हमसब मिलकर करेंगे. टामाक बजवा दो.’ इतना कहकर निश्चिंत दुड़गम ने बची हुई महुए की शराब पुनः पीनी शुरू कर दी. दूसरे लोग भी उसका साथ देने में जुट गये.

शाम हो चली थी. टामाक बज रहा था ... गुड्-गुड् ... गुबुड्-गुबुड् की ध्वनि जंगल में लगातार गूंज रही थी. बड़ पेड़ के नीचे अखड़ा में ठसाठस भीड़ हो चली थी. सभी उचक-उचक कर चरका आयो होड़ को देख रहे थे. उसके बाल बिखरे हुए थे. उनलोगों के नथुनों से बिल्कुल अलग किस्म के नथुने थे उस आयो होड़ के. बिल्कुल पतले. तोते की तरह. उसके कमर से नीचे चिथड़े जैसा एक कपड़ा लटक रहा था. शेष पूरा बदन कपड़ा रहित था. उस चरका जनी होड़ के ओठ पलाश के फूल जैसे गहरे लाल थे और वक्ष किसी छोटे और कच्चे पपीते की तरह कड़े दिख रहे थे. 

‘जोहार. यह आयो होड़ नदी में मिली है. चरका कुल की मालूम होती है. हमने इसे वापस भेजने की कोशिश की. लेकिन यह नहीं लौटना चाहती है. इसने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा है. हम होड़ जन अकारण किसी की हत्या नहीं करते. इसलिए इसे मार नहीं सकते. तुम ही लोग बताओ क्या किया जाए?’ दुड़गम ने एक ही सांस में पूरी बात कह दी.
लोगों में खुसर-पुसर शुरू हो गई. हातु के पंच लोग भी आपस में राय-विचार करने लगे. कोई एकमत राय नहीं थी. अधिकांश यही चाहते थे कि उसे वापस भेज दिया जाए. जबरदस्ती भी करनी पड़े तो जबरदस्ती ही सही. आखिर वह चरका कुल की आयो होड़ है. क्या पता किसी खास उद्देश्य से आयी है. लोग उसके आने को जान गुरु की चेतावनी से भी जोड़ कर देख रहे थे.

पूरी रात बीत गयी. लेकिन कोई एक राय नहीं बनी. हां, सभी इस बात पर जरूर सहमत थे कि उसकी हत्या नहीं की जाए. आखिर में दुड़गम ने एक प्रस्ताव रखा.
‘हमारी राय है कि पूर्णिमा तक इसे आसरा दिया जाए. पूर्णिमा आने में भी ज्यादा समय नहीं है. तब तक सभी लोग शांत भाव से इस समस्या पर विचार कर लें.’
सभी को दुड़गम का प्रस्ताव अच्छा लगा.
‘हां ... तुम ठीक कहते हो. पूर्णिमा को ही इसका फैसला हो.’
‘लेकिन अगर इसने कुछ गलत किया तो ...’ किसी ने आशंका जतायी.
‘ये अकेली आयो होड़ क्या कर लेगी. दुड़गम ठीक बोलता है. हमलोग पूर्णिमा को फैसला करते हैं. तब तक इसे समझाएंगे ...’ जोग मांझी ने सबको आशवस्त किया.
‘लेकिन तब तक ये कहां रहेगी? और इसकी जिमवारी कौन लेगा?’
‘ये यहीं ... हमारे हातु में रहेगी.’ दुड़गम ने जवाब दिया.
होड़ लोगों की जुटान अलग-अलग दिशाओं में बिखर गयी.

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इधर अंग देश के राजप्रासाद में गहन मंत्रणा चल रही थी. महाराजा, महाअमात्य, सेनापति, महामंत्री, श्रेष्ठि प्रमुख एवं विशेष प्रशासनिक प्रमुख गण उस मंत्रणा में शामिल थे.

महामंत्री ने महाराजा की ओर देख कर महाअमात्य से प्रश्न किया, ‘आपको क्या लगता है. उसे अपने लक्ष्य में सफलता मिलेगी?’
‘सफलता-असफलता सब कुछ देव इच्छा पर निर्भर करता है.’
‘पर अभी तक तो देव हमारे साथ नहीं रहे हैं. जब भी पिछली पराजय के बारे में ध्यान आता है. रक्त खौलने लगता है.’ महाराजा के शब्दों में लाचारी झलक रही थी और पराजय की पीड़ा भी.
महाअमात्य ने वहां मौजूद सभी लोगों पर नजर डालते हुए पूरे विश्वास से कहा, ‘कभी-कभी जो युद्ध पूरी सेना नहीं जीत पाती उसे एक स्त्री जीत लेती है. फिर वह तो उत्तम श्रेणी की गणिका है. हमारे कुल ने गणिकाओं के सहारे पूर्व में भी कई युद्ध बिना रक्त बहाये जीते हैं.’
‘बस ... इसी कारण आपकी बात स्वीकार्य है. लेकिन आपने उस गणिका की सारी शर्तें मान लीं. ये ठीक नहीं किया.’ महाराजा ने आपत्ति जतायी.
‘आपत्ति तो मुझे भी थी. परंतु वह अड़ गयी थी. क्या करता. मानना ही पड़ा.’
श्रेष्ठि प्रमुख बोला, ‘तो आपका क्या विचार है. यदि वह सफल हुई तो हम सचमुच उस गणिका की ... उस पापिनी स्त्री को कुलदेवी का दर्जा दे देंगे?’
‘वचन तो वचन होता है ...’
‘आप कुछ ज्यादा ही उदार हो गये महाअमात्य. उसकी यह शर्त कि हमारे धर्माचार्य गणिकाओं के यहां जाकर उनके दरवाजे की मिट्टी मांगेंगे ... मैं तो सोच-सोच कर परेशान हूं. क्या प्रतिक्रिया होगी धर्म संसद में.’ महाराजा अभी भी महाअमात्य से सहमत नहीं लग रहा था.
‘आप चिंतित न हों ... धर्म संसद मान लेगी. वे भी यज्ञ संस्कृति का प्रसार चाहते हैं. सबकुछ कल्याण के लिए ही मैंने स्वीकार किया.’
अब तक चुप सेनापति से नहीं रहा गया, ‘उसकी शर्त नहीं मानेंगे तो वह क्या अहित कर लेगी?’ 
‘बात वचन की है सेनापति महोदय. वैसे भी एक पातक को देवी का दर्जा देने से आर्यों का ... हमारे कुल का मान ही बढ़ेगा.’ महाअमात्य मुस्कराते हुए बोला.
महाराजा ने फिर कहा, ‘पर क्या धर्म संसद इसे स्वीकार कर लेगा ...?’
‘कुल की रक्षा के लिए यह बहुत अल्प प्रतिदान होगा. विरोध तो होगा. पर अंततः लोग मान जाएंगे. धन में बहुत शक्ति है.’
‘चलिए अंग कुल मान लेगा ... परंतु दूसरे कुल? क्या वे भी स्वीकार करेंगे?’ श्रेष्ठि ने दूसरे तरह से महाअमात्य के बात को टालने की कोशिश की.
‘करेंगे ... सभी करेंगे. आर्य कुल के यज्ञ दर्शन और संस्कृति का विस्तार उन्होंने रोक रखा है. अरण्य संस्कृति का समूल नाश जरूरी है. वैसे भी, वऩक्षेत्र सभी की आर्थिक जरूरत है. ’
‘तो आप चाहते हैं कि हमले की तैयारी हो?’ कोई संतोषजनक राह नहीं सूझता देख महाराजा ने लगभग हथियार डालते हुए सेनापति की ओर देखा.
‘अवश्य. हमारे पास अवधि बहुत सीमित है महाराज. मुझे संकेत मिल चुका है कि वह उनके मुख्य गढ़ चम्पा तक सकुशल पहुंच गयी है. मेरा आग्रह होगा कि विमर्श में एक क्षण भी गंवाए बिना हमले की तैयारी हो.’
महाराज चुप हो गए. सभी के चेहरे पर एक खुशी थी पर संशय भी था. 
सेनापति ने तब कहा, ‘हम तैयार हैं. आपलोग निश्चिंत रहे. हमने उनके व्यूह की जानकारी कर ली है. वनक्षेत्र में प्रवेश करने के सभी रास्तों पर उन्होंने निगरानी चौकियां स्थापित कर रखी हैं. इनमें से दो चौकियां अत्यंत कमजोर हैं. जिन्हें हम आसानी से भेद सकते हैं. हालांकि दोनों चौकियों तक पहुंचने का रास्ता बहुत ही जोखिम भरा है. लेकिन हमने पहुंचने की पूरी योजना बना ली है. इस बार हम अवश्य अपने गौरव में वृद्धि करने में सफल रहेंगे.’
महाअमात्य समझ गये सभी लोग अब उसकी योजना के समर्थन में हैं. ‘सेनापति सही कह रहे हैं. मैंने उनकी पूरी योजना सुनी है. सरदार दुड़गम के मरते ही उनकी हिम्मत टूट जाएगी तब असुरों, कोल-किरातों पर विजय पाना आसान हो जाएगा.’
‘आप सब सहमत हैं फिर ... तैयारी की जाए’ महाराजा ने अंततः निर्णय पर अपने आदेश की मुहर लगा दी.

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आज तीसरा दिन था दुरगी का चम्पा हातु में. बिल्कुल नया अनुभव. वह एक ऐसी श्यामवर्णी और तांबई दुनिया का साक्षात्कार कर रही थी जहां के सभी इंसान स्वतंत्र थे. अंग नगर में जहां मनुष्यों की त्वचा दूधिया भूरी थी, यहां के लोगों का रंग श्याम था. ताबंई आभा लिये. सबकी देहयष्टि सुडौल थी और किसी भी जन का पेट चरबी के कारण फैला हुआ या थुलथुल नहीं था. उसने अनुमान किया दो सौ से ज्यादा कुटुंब नहीं थे उस गांव में. सभी आगार (घर) बांस और लकड़ियों के बने हुए. कुछ मिट्टी के भी थे जिन पर गेरू और काली मिट्टी से आकर्षक लिपाई-पुताई हुई थी. उसने आज तक ऐसे आगार नहीं देखे थे. जिनमें कोई ताले वाला दरवाजा हो. उस हातु के स्त्री हो या पुरुष सभी वस्त्रविहीन थे. बस उनका जननांग ढंका था. दो दिनों में उसने घूम-फिर कर देख लिया था. सभी आगारों की बनावट एकसमान थी. एक-दो बड़े आगर (कमरा). उसी में जानवर, मुर्गियां और आदमी. सभी साथ रहते थे. सूअरों का बाड़ा जरूर अलग बना था और पीछे बड़ा सा खुला आंगन था. किसी भी घर में संपत्ति कहने लायक कुछ नहीं था. यहां तक कि अनाज का संग्रहण भी वे नहीं करते थे. बरतन के नाम पर पानी रखने के लिए छिली, टुकुच्, चेलङ (विभिन्न आकार के घड़े), डुभा (बड़े कटोरे जैसा पात्र) और पटिया (चटाई) जैसी सामान्य जरूरत की चीजें भर थीं. 

दुड़गम का आगार (घर) जरूर औरों से कुछ बड़ा था. बड़ा मतलब उसमें चार आगर (कमरा) थे. उसे जिस आगर में रखा गया था. वह मिट्टी का था. दुड़गम सबसे आगे वाले आगर में सोता था और वह बीच के आगर में रखी गयी थी. दुड़गम की ऊमर तीस-बत्तीस से ज्यादा नहीं होगी. हट्टा-कट्टा बिल्कुल किसी बलशाली महिष जैसा. उसका पौरुष किसी भी स्त्री को मदहोश कर देने वाला था. आने से पहले उसने चाय-चम्पा गढ़ के जिस राजा की कल्पना की थी. दुड़गम बिल्कुल वैसा नहीं था. मतलब, वह भी आम असुरों की तरह ही था. न कोई राजसी मुकुट, आभूषण, वस्त्र वगैरह. पग-पग पर हीरे-माणिक जैसे मूल्यवान स्फटिक बिखरे पड़े हैं, नदी तट स्वर्ण से झिलमिला रहे हैं, लेकिन इन सभी वस्तुओं के प्रति कोई असक्ति नहीं है. फूल-पत्तियां, पंछियों के पंख और नदी में मिलनेवाले सीप से स्त्री-पुरुषों ने श्रृंगार किया हुआ है. दुड़गम और उसके हातु के किसी भी व्यक्ति को देखकर धनिक होने का एक भी लक्षण ढूंढना निरर्थक था. धन-संपत्ति की चर्चा भी नहीं थी. दुड़गम सबसे बड़ा सरदार था असुरों का. किंतु उसके पास दास-दासियां तक नहीं थी. सेवक-स्वामी का विभाजन नहीं था. न वहां कोई हाट-बाजार था और न ही वस्तुओं का आपण्य (विक्रेय) होता था. एक आगर में उसके माता-पिता रहते थे. एक में वह खुद. तीसरे में चार-पांच अन्य जवान लोग सोने आते थे. संभवतः वे सब उसके नजदीकी साथी या लड़ाके होंगे. और एक में उसे रखा गया था. जिस तरह से उसे रखा गया था उसे कैदी तो नहीं ही कहा जा सकता था. हां, रात में एक लड़की सोने आती थी. शायद उसकी निगरानी के लिए. उसका नाम सोनमुनि था. दिन में तो कोई उसकी निगरानी भी नहीं करता था.

आज की रात उसकी तीसरी रात थी. दुरगी वहां के माहौल को देखती और बार-बार अपने आने के प्रयोजन पर विचार करती. उसका विवेक उसको मुश्किल में डाल रहा था. जो समाज इतना उन्मुक्त हो, स्वतंत्रता जहां किसी के आज्ञा की चेरी न हो, जहां स्त्री-पुरुष में तनिक भी भेद न हो ... सत्य और मनुष्यता की आभा से दमक रहे मनुष्यों के प्रति यह वैर भाव क्यों? ऐसे निर्मल हृदय वाले अरण्यकों को आखिर क्यों अधीन करना? सिर्फ वनसंपदा पर अधिकार के लिए? यदि ये यज्ञ संस्कृति-दर्शन नहीं मानते, पुरोहित व्यवस्था और धार्मिक आडंबरों को नहीं मानते, तो ऐसे वर्णविहीन समताजीवी असुर अरण्यक संस्कृति से कैसा भय? क्यों अंग ऐसे सुंदर गण समाज की हत्या पर तुला है? कितना ही अच्छा होता कि अंग के लोग भी इनकी तरह धनलोलुपता और मानवीय वासना से विलग रहते! 

वह इस बारे में जितना विचारती, उतना ही अधिक उलझती जाती. बिना कोई अधिवास डाले वह अंग नगर के मार्गों पर विचरण नहीं कर सकती थी. पर यहां तो नग्नता की कोई संकल्पना ही नहीं है. वह खुद तीन दिनों से बिना किसी ऊपरी अधिवास के इस बड़े गांव में स्वच्छंद विचर रही है. पर कोई पुरुष उसके सुडौल वक्षों को, उसके कटि प्रदेश की मादकता को तनिक भी वासना भरी दृिष्ट से नहीं देखता. वह सोचती, अंग राज्य में अगर वह इस तरह से निर्वस्त्र क्या एकाकी भी यदि पूर्ण अधिवास में विचरण करती तो लोग कब का नोच-खा जाते. लेकिन अंग की सबसे उ�ाम श्रेणी की गणिका, जिसके साथ सहवास मात्र की कल्पना से ही नगर के सभी वर्गों के पुरुष उन्मादी हो उठते हैं, उस श्रेष्ठतम गणिका की तरफ यहां कोई आंख उठाकर भी नहीं देखता. दुड़गम, जो इस वन्यक्षेत्र का राजा है, बलात् उसे भोग सकता है. परंतु वह तो उसके गंध को भी शायद नहीं महसूसता. ऐसे दुड़गम और उसके लोगों को अंग ... उफ्फ! 

इसी उधेेड़बुन में रात्रि के अंतिम पहर में उसकी आंख लग गयी. आंख मूंदते-मूंदते उसे महाअमात्य की बातें याद आई, ‘भूलना नहीं कि तुम एक गणिका हो. अंग की गणिका. तुम्हारे मन और देह पर राज्य का पहला अधिकार है. वहां जाकर उनके मोहपाश में मत बंध जाना. अपने कर्तव्य से च्युत मत होना. तुम्हारे ऊपर अंग देश और आर्यों के भविष्य की रक्षा का दायित्व है.’

जब उसकी नींद खुली तो दिन बेहद चमकीला हो रहा था. शायद दो पहर बीत चुके थे और सूरज देव पूरी गरमी के साथ नभ में अट्टहास कर रहे थे. वह उठी और पास के झरने की ओर चल दी. सोनमुनि उसके पीछे-पीछे थी. दिन में नदी तक ही सोनमुनि साथ रहती थी. फिर उसका दर्शन निशा में ही होता. शयन करते समय. 

नदी की ओर बढ़ते हुए उसे महसूस हुआ संपूर्ण गांव निःशब्द है. लोग दिख नहीं रहे हैं. दोपहर की इस अवधि में तो गांव की गतिविधियां इस तरह से अदृश्य नहीं रहती थी.

‘लोग दिख नहीं रहे हैं. गांव खाली मालूम होता है. लोग कहीं गये हैं क्या?’ दुरगी को वनक्षेत्र की भाषा थोड़ी-बहुत आती थी. 
‘सभी लोग सेंदरा करने गये हैं.’ सोनमुनि ने चहकते हुए जवाब दिया.
‘सेंदरा ...? ये क्या होता है?’
‘शिकार ... सबलोग शिकार करने गये हैं. आज रात को मांस मिलेगा. एनेच्-सेरेंग (नाच-गान) होगा.’ सोनमुनि की आवाज में खुशी थी.
‘हूं ...’ दुरगी ने फिर आगे कुछ नहीं पूछा.

झरने के निर्मल जल में वह देर तक स्नान करती रही. संपूर्ण सुख-सुविधाओं वाले अंग देश और उसके नगरों में हीरे-जवाहरात और स्वर्णराशियों से परिपूर्ण ऐसी कोई नदी दुरगी ने नहीं दृष्टिगत किया था. न ही सुना था. एक से बढ़कर धनिकों, सामंतों, श्रेष्ठियों के स्नानागार का अनुभव था उसे. पर ऐसा प्राकृतिक स्नानागार्! उसने डुबकी लगायी ... नीचे तल पर हीरे झिलमिल कर रहे थे. स्नान का ऐसा आनंद उसने समंदर में भी अनुभव नहीं किया था. 

नदी से लौटते हुए दुरगी अपने सारे संशयों को झटक चुकी थी. वह गणिका है और उसे अपने आने का प्रयोजन हर हाल में पूरा करना है. 

सूरज डूबने के बहुत पहले ही हातु के सभी लोग लौट आए थे. पांच बड़े सूअरों का सबने मिलकर सामूहिक शिकार यानी सेंदरा किया था. दुड़गम के बड़े आंगन में सूअर को पकाने की व्यवस्था हुई. कोई तेल मशाला नहीं. चार सूअरों को काट कर भूना गया और एक को छीलकर पूरा का पूरा ही आग में झोंक दिया था. बड़ पेड़ के नीचे सभी लोग मस्त हो कर एनेच् (नाच) रहे थे. सामूहिक सेरेंग (गीत) प्रकृति की समस्त ध्वनियों को अभिव्यक्त कर रही थी. तुमङ (मांदल), ढुलकी (ढोलक) और तमोड़ा (मध्यम आकार का नगाड़ा) का ऐसा नैसर्गिक संगीत दुरगी ने कभी नहीं सुना था. समंदर के ज्वार की तरह सैंकड़ों पैर एक ही लय-ताल पर उठ-गिर रहे थे. महुए की शराब सबने पी थी. पूरा गांव महुआ-महुआ हो रहा था. दुड़गम दो हांड़ी महुआ पी चुका था. लोगों ने उसे भी महुआ दिया. पर उसने ज्यादा नहीं पिया था. उसकी नजर दुड़गम पर गड़ी थी और समूचे माहौल का वह बारीकी से थाह ले रही थी. आधी रात को सूअर का भोजन बंटा. सब मिल बांटकर चट कर गये. उसने भी खाया. बहुत स्वादिष्ट मांस था.  

भोजन के बाद फिर से एनेच्-सेरेंग का नया क्रम शुरु हुआ. सब नशे में धुत थे. लेकिन स्त्री-पुरुष की मर्यादा में कोई अतिक्रमण नहीं था. जवान लड़के-लड़कियों में चुहल हो रही थी. कुछ एक-दूसरे का इशारा कर धीरे से खिसक कर अंधेरे में खो जा रहे थे. दुड़गम भोजन के बाद ही वहां से चला गया था. दुरगी ने अंदाज लगाया. रात्रि का तीसरा पहर बीत रहा था शायद. उसने नजरें दौड़ायी. सोनमुनि का पता नहीं था. वह उठी और हल्के कदमों से बंदीगृह की ओर चल दी. जो वास्तव में बंदीगृह नहीं था. 

अपने आगर में जाते-जाते दुरगी अचानक दुड़गम के आगर के पास रूक गयी. उसने अंदर झांक कर देखा. दुड़गम नशे में बेधड़क सोया हुआ था. अंधेरे में बस उसकी सांसें बज रही थी. उसने घूम कर सभी आगरों का निरीक्षण किया. सभी खाली थे. मतलब लोग अभी भी अखड़ा में ही थे. उसकी आंखें बिल्ली की तरह चमक उठी. वह पलट कर वापस दुड़गम के आगर में जा पहुंची. बिल्कुल उसके पास. हौले से उसके बगल में लेटते हुए दुरगी ने अपनी सांसें रोक ली थी.

कुछ पल बीत जाने पर. जब उसे भरोसा हो गया कि दुड़गम को उसके आने की सुध नहीं हुई है, तो उसने अपने कमर का वस्त्र हटाया और कदली जंघा दुड़गम की देह पर रख दिया. नींद और नशे में धुत दुड़गम ने उसकी टांगों को छुआ और कुछ बड़बड़ाया. दुरगी ने बिना विलंब किये अपना एक कुच उसके बड़बड़ाते खुले ओठों में डाल दिया. दुड़गम की आंखें खुल गयी. वह पूरी तरह से नशे में था. उसकी लाल आंखें अंधेरे में आग-सी मुस्करायी और उसकी समूची देह तपने लगी. दुरगी की देह पर पुरुषफांस कसने लगी. थोड़ी ही देर में दुरगी बरसाती उफनती नदी हो गयी और दुड़गम हहराती लहरों पर डोंगी खेता, हिचकोले खाता होड़. यह इंसानी इतिहास का एक ऐसा सहवास था जिससे दो नस्लों का इतिहास बदल जानेवाला था. दुरगी दुड़गम के देह पर यह इतिहास लिख रही थी या दुड़गम दुरगी की देह पर. इसे सिर्फ अंग के कुछ लोग जानते थे. दुड़गम के चाय-चम्पा का असुर समाज बिल्कुल धोखे में था. पर इस अवधि में दोनों केलि-क्रीड़ा में मस्त थे और दुरगी अब तक के अनूठे सहवास के एक नितांत नये पुरुष अनुभव से अपूर्व आनंद और नशे में डूबती जा रही थी. 

बाहर गांव के अखड़ा में एनेच् (नाच) अपने चरम पर पहुंचा हुआ था. अंग देश की सर्वश्रेष्ठ गणिका अपना पहला पासा सफलतापूर्वक खेल चुकी थी.

वनक्षेत्र में आज दुरगी का नवां दिन था. पांच दिन बाद पूर्णिमा थी और समूचा चाय-चम्पा मरांग बुरु की आरधना की तैयारी में था. दुड़गम मांझी हाड़ाम और दूसरे लोगों के साथ गांव-गांव घूमकर तैयारियों का जायजा लेता और शाम ढलने से पहले अपने हातु लौट आता. अक्सर वह दिन के एक पहर पहले ही आ जाता और चम्पा हातु के पास के एक प्राकृतिक कंदरा में उसके साथ सहवास करता. फिर दोनों अलग-अलग दिशा से गांव में प्रवेश करते. रात्रि भोजन के बाद जब सभी नींद में बेसुध हो जाते. सहवास की बेसब्र दूसरी पारी शुरू होती और दुरगी उसके वक्ष समंदर में रात भर मछली की तरह नाचती रहती. 

दिन में जो कंदरा उनका सहवास स्थल बनता, वह चम्पा गांव के पश्चिम में स्थित था. गांव से थोड़ी दूर. एक पहाड़ की तलहटी में. पहाड़ और गांव के बीच एक पतली-सी बरसाती नदी थी. 

यह पहली रात का ही आनंद था कि दूसरे दिन दोपहर में दुड़गम ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया. पहले तो वह समझी नहीं. लेकिन जब समझ में आया तो वह खुशी से झूम उठी थी. उसने सावधानी से खुद को गांव की नजरों से छुपाया और उसके पीछे-पीछे चल दी. नदी के उस पार गांव से ओझल होते ही दुड़गम ने उसे अपनी बांहों में उठा लिया और कंदरा में पहुंचकर भूखे सांड की तरह उस पर टूट पड़ा था. 

आज भी वह नियत समय पर कंदरा में उसका इंतजार कर रही थी. और वह आया. आते ही दुरगी उसकी देह पर लता की तरह छा गयी. दुड़गम ने उसके ओठों को अपने मुंह में भर लिया. दोनों नितंब उसकी मुठ्ठियों में सिमट आए थे. थोड़ी ही देर में दोनों केलि-क्रीड़ा से थककर चूर हो गए. पसीने में लथपथ उनकी सांसों का संगीत कंदरा में घूम-फिर कर बार-बार ध्वनित हो रहा था.

यह नवमी का दिन था. दुड़गम के अंग ढीले हो गये थे और जब उसकी आंखें स्त्री साहचर्य और साहचर्य के विश्वास से मूंद गयी थीं. तभी दुरगी ने हाथ बढ़ाकर कंदरा में छुपा कर रखे अपराजिता (टेंटोया) के फूल को मुठ्ठियों में मसला और उसके रस को अपने मुंह में भर लिया. फिर पलट कर दुड़गम की विशाल और मजबूत छाती पर अपना सिर टिका दिया. उसकी छाती और ग्रीवा पर अपने ओठों को रगड़ती हुई मुख तक पहुंची. दुड़गम उसकी इस हरकत से फिर से तपने लगा था. तभी उसके गालों को रगड़ते हुए दुरगी के ओठ दुड़गम के ओठों पर पहुंचे. जिसे चूमते-चूसते हुए दुरगी ने अपराजिता फूल का पूरा जहर उसके मुख में उड़ेल दिया. बिना किसी आशंका के दुड़गम ने उस रस को, स्त्री विश्वास को अपने कंठ से नीचे उतार लिया. 

अगले ही पल दुड़गम का शरीर तीव्रता से निस्तेज होने लगा. उसकी आंखें विस्मय से फट गई. उसने अविश्वास से दुरगी का देखा और उसकी ओर हाथ बढ़ाते हुए उठने की कोशिश की. लेकिन रक्तप्रवाह थम गया था. जीवन तत्त्व तेजी से साथ छोड़ रहा था. मांसपेशियों में प्राण नहीं रह गए थे. थोड़ी ही देर में उसका शरीर नीला पड़ गया और सांस टूट गयी. 

दुरगी को जब विश्वास हो गया कि दुड़गम हमेशा-हमेशा के लिए शांत हो गया है तो वह विजेता की तरह उठी. कंदरा के बगल के चंुआ (जलस्रोत) में जाकर अपना मुख अच्छी तरह से धोया. फिर दुड़गम द्वारा लाये गये शहद को थोड़ा-सा चखा. स्वाद में कोई अंतर न जानकर उसे तसल्ली हुई कि जहर का प्रभाव उसके मुख में नहीं है. उसने मुस्करा कर दुड़गम की ठंढी देह पर आखिरी दृष्टि डाली. चाय-चम्पा का अजेय असुर सरदार निश्चेत पड़ा था. उसकी आंखें खुली थी. जो विश्वासघात के विस्मय से उदास हो चुकी थी. उसने इत्मीनान से उसका तीर-धनुष उठाया और पहाड़ चढ़ने लगी. उसका गंतव्य पहाड़ की चोटी थी.

चोटी पर पहुंच कर उसने आग सुलगाया. योजनानुसार कंदरा में पहले से ही दुरगी ने वे सारी चीजें इकठ्ठा कर रखी थीं. जिनसे दुड़गम के हत्या की खबर वह अंग के गुप्तचरों तक पहुंचा सके. उसने सूखे पत्तों में सूअर की चरबी मिलाकर तीर की नोक पर उसे बांधा. आग में डालते ही जो भभक उठी. दुरगी ने तीर को प्रत्यंचा पर चढ़ाया और पूरी ताकत लगाकर उसे खींचा और आसमान में उछाल दिया. किसी उल्का पिंड की तरह आग का वह गोला आसमान को भेदता चला गया. तब सूरज डूबने ही वाला था.

शारदीय नवमी की यह अर्द्धरात्रि थी. उस पहाड़ के नीचे की कंदरा में जहां दुड़गम सदा के लिए सोया हुआ था, वनक्षेत्र की जनता चीखती हुई इकठ्ठा हो रही थी. पहाड़ की चोटी पर पर आर्यों की एक नयी देवी का अवतार हो चुका था. अंग की सेना मारते-काटते, गांवों को जलाते पहाड़ की दिशा में तेजी से बढ़ रही थी. यज्ञ संस्कृति के हत्यारे अश्व मानो हवा में उड़ रहे थे. जिनकी हिनहिनाहट से समूचा वनक्षेत्र आक्रांत था. दुड़गम के लड़ाके अंधेरे में वीरतापूर्वक खेत हो रहे थे.

Ref :

- अश्विनी कुमार पंकज

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