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My Tryst with Anthropology and Tribal Studies Jharkhand

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आज से करीबन दो सौ वर्ष पहले प्रकाशित अपनी चर्चित पुस्तक ‘द एनल्स आॅफ रूरल बंगाल’ में अंग्रेज सरकार के मुलाजिम और बाद में एक चर्चित इतिहासकार बने डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर लिखते हैं कि अपने शुरुआती दिनों में अंग्रेजों को लगता था कि भारत में मुसलमानों के अलावा सिर्फ हिंदू रहते है, जबकि यह एक भ्रम है. क्योंकि मनु ने जिस हिंदू धर्म की स्थापना की थी वह सिर्फ मध्य देश का धर्म है, जिसके बाहर एक विशाल आबादी रहती है जो मनु द्वारा स्थापित हिंदू धर्म की मान्यताओं को स्वीकार नहीं करती.
वैदिक युग के ब्राह्मणों और मनु ने जिस हिंदू धर्म की स्थापना की वह दरअसल मध्य देश का धर्म है. मध्य देश, यानी, हिमालय के नीचे और विंध्याचल के उपर का भौगोलिक क्षेत्र.
हिंदू धर्म की स्थापना मध्य एशिया से निकल कर दुनियां के अलग अलग हिस्सों में कई सभ्यताओं को जन्म देने वाले आर्यों ने किया जो हिंदुस्तान में सबसे पहले उत्तर पश्चिम क्षेत्र के दो पवित्र नदियों- सरस्वती और दृश्यवती- के बीच पड़ाव डाला. वहां से वे दक्षिण पूर्व दिशा की तरफ बढे जिसे ब्रह्मऋषियों और वैदिक ऋचाओं के गायकों का प्रदेश माना जाता है. इसके बाद वे दक्षिण पूर्व की दिशा में बढे और गंगा नदी के किनारे किनारे बसते हुए बंगाल के मुहाने तक पहुंच गये. इसी इलाकों को मनु अपना इलाका- हिंदू धर्म का इलाका मानते हैं जो शुद्ध बोलता है, उसके बाहर तो राक्षस रहते हैं जो शुद्ध बोल नहीं सकते, अखाद्य पदार्थों का भक्षण करते हैं. जो आर्यो की तरह गौर वर्ण के नहीं, काले हंै. वे शास्त्रार्थ करने वाले लोग नहीं, बिल्क उनके हाथों में तो बांस के बड़े-बड़े धनुष और जहर बुझे तीर हैं.
हुआ यह भी कि वे यहां अपनी जड़े जमा पाते और मनु द्वारा व्याख्यायित हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार कर पाते, उसके पहले ही बौद्ध धर्म यहां उठ खड़ा हुआ जो इस इलाके के लोगों को सहज स्वीकार्य भी हुआ. यहां के राजा भी ब्राह्मण, क्षत्रिय नहीं बिल्क यहां के मूलवासी थे या वे लोग थे जो मनु की वर्णवादी व्यवस्था के बाहर के लोग थे. चाहे वे सम्राट अशोक हों या फिर गौड़ को अपनी राजधानी बना कर 785 से 1040 ई. तक बंगाल पर शासन करने वाले राजे. उनमें से अधिकांश बौद्ध धर्म को मानने वाले थे. कम से कम 900 ई. तक बौद्ध धर्म को मानने वाले राजाओं का शासन था. सन् 900 ई. में खुद को हिंदू मानने वाले बंगाल के राजा आदिश्वरा ने वैदिक यज्ञ व पूजा पाठ के लिए कन्नौज से पांच ब्राह्मणों को बुलवाया. वे पांचों ब्राहमण गंगा के पूर्वी किनारे पर बसे. स्थानीय औरतों के साथ घर बसाया, बच्चे पैदा किये. जब वे यहां अच्छी तरह बस गये, उसके बाद कन्नौज से उनकी वैध पत्नियां यहां आई. वे स्थानीय पत्नियों और कथित रूप से अवैध संतानों को वहीं छोड़ कर आगे बढ गये. उनकी अवैध संतानों से राड़ी ब्राह्मण पैदा हुए, साथ ही अनके अन्य जातियां जैसे कायस्थ आदि. यह ऐतिहासिक परिघटना 900 वीं शताब्दी की है. लेकिन ये जो मिश्रित नस्ल और जातियों का अभिर्वाव हुआ, वे हंटर के अनुसार मनु की वर्ण व्यवस्था के लोगों के बीच आपसी विवाह का नतीजा न हो कर ब्राह्मणों और हिंदू वर्ण व्यवस्था के बाहर की जातियों के मिश्रण का नतीजा था. 

हंटर यह बात भी बताना नहीं भूलते कि मनु की हिंदू वर्ण व्यवस्था का अभिजात तबका ब्राह्मण ही था. जब क्षत्रियों का प्रभुत्व बढा तो परशुराम ने पृथ्वी से क्षत्रियों को समाप्त करने का संकल्प लिया था. दूसरी बात यह कि बौद्ध धर्म के पहले या बाद में मध्य देश से जो भी अतिक्रमणकारी बंगाल आये, उन्होंने स्वयं को ब्राह्मण कह कर प्रचारित किया. यह अलग बात की मध्यदेश के ब्राह्मणों ने बंगाल के ब्राहमणों को कभी भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया. एक जमाने में बंगाल में कुलीन ब्राह्मणों की इतनी कमी थी कि एक ब्राह्मण बढी उम्र तक सैकड़ों विवाह करता और ऐसे एक ब्राह्मण के मरने पर एक साथ सैकड़ों महिलाएं बिधवा हो जाती. उनमें बहुतेरी ऐसी होती थी जिन्होंने अपने कुलीन ब्राह्मण पति का कभी ठीक से चेहरा भी नहीं देखा होता.
तो, तब के बंगाल में, जिसमें वीरभूम और मानभूम शामिल थे- की आबादी के मूल तत्व कौन कौन थे? हंटर ने पंडितों के हवाले इस तथ्य का ब्योरा कुछ इस प्रकार दिया है- 1.यहां के गैर आर्यन ट्राईब 2.वैदिक व सारस्वति ब्राह्मण 3. छिटपुट वैश्य परिवारों के साथ परशुराम द्वारा खदड़ेे गये मध्य देश के क्षत्रिये जो बिहार से नीचे नहीं उतर पाये 4. सन् 900 ई. में कन्नौज से लाये गये ब्राह्मण और उनके वंशज और 5. उत्तर भारत से पिछले कुछ वर्षों में आये क्षत्रिय, राजपूत, अफगान और मुसलमान आक्रमणकारी. और यह बिरादरी मनु की वर्ण व्यवस्था के हिस्सा नहीं रह गये थे. बंगाल के ब्राह्मणों को उत्तर भारत, यानी मनु के मध्य देश के ब्राह्मणों ने राड़ी ब्राह्मणों की संज्ञा दे रखी थी और उनसे रोटी बेटी का संबंध नहीं रखते थे.
अस्तु, बंगाल की आबादी दो बडे खेमों में विभाजित थी. आक्रमणकारी आर्य, जिन्हें ब्राह्मणों जैसा दर्जा प्राप्त था और दूसरा यहां के आदिवासी जिसे आक्रमणकारियों ने यहां पाया था और जिसे वे जंगलों में खदेड़ते जा रहे थे. आर्यो को अपनी विशिष्टता का इतना अहंकार था कि वे आदिवासियों को वा-नर, मनुष्य से नीचे का जीव जंतु का दर्जा देने लगे. आदिवासियों से उनकी नफरत की अनेक वजहें थीं. एक तो उनका वर्ण काला था, दूसरे वे ऐसी भाषा बोलते थे जिसका उनके अनुसार कोई व्याकरण नहीं था, तीसरे उनके खान पान का तरीका और चैथा वे किसी तरह के रीचुअल में विश्वास नहीं करते थे. वे इंद्र की पूजा नहीं करते थे और उनके पास कोई ईश्वर नहीं था. वे आत्मा के अमरत्व में विश्वास नहीं करते थे. आदि..आदि. आदिवासियों से उनकी नफरत इस कदर बढती गई कि वे उन्हें मनुष्येतर प्राणी के रूप में चित्रित करने लगे. वैदिक ऋचाओं में उन्हें दसायन, दस्यु, दास, असुर, राक्षस जैसी संज्ञाओं से संबोधित किया जाने लगा. उनके व्यक्तित्व को विरूपत कर दिखाया जाने लगा.

लेकिन सदियों तक साथ रहने के कारण उनके न चाहने पर भी अनार्य समाज का प्रभाव उनकी संस्कृति पर पडा. संस्कृत से इतर बोली जाने वाली भाषाओं में गैर आर्येतर भाषाओं के असंख्य शब्द चले आये. वैसे, साहित्य लेखन में भरसक देशज शब्दों के प्रयोग से परहेज करने की प्रवृत्ति रही, लेकिन सामान्य लोगों के बोलचाल की भाषा में देशज शब्द भरे पड़े हैं. बंगाल की बड़ी आबादी आज उसना चावल खाती है, अरवा नहीं. तंत्र-मंत्र, भूत- पिशाच, वट-वृक्ष की पूजा आदि अनार्य समाज संस्कृति का ही प्रभाव है. वैसे, इन सबों का उत्स बौद्व धर्म से भी जोड़ा जाता है. वैराग्य भाव, अहिंसा आदि इसी का प्रभाव माना है. अपने पतन काल में बौद्ध धर्म ब्रजायन और हीनायन में विभाजित हो गया. सन्यासिन भैरवी में बदल गई. तंत्र मंत्र का बोलबाला हो गया. देश के कई हिस्सों में शक्ति पीठ बनने लगे. इस बात की चर्चा हंटर ने भी कि है कि रुद्र या शिव अनार्यो के देवता थे जिसे मनु के अनुयायियों ने भी अपना लिए, लेकिन उन्होंने शिव का रूप बदल दिया. वेदों की ऋचाओं में शिव नहीं आते. हिंदुओं में सर्वाधिक लोकप्रिय रामकथा में शिव प्रार्वती के विवाह की कथा एक प्रेक्षप या उपकथा के रूप में आती है. शिव दरअसल सृजन के देवता है. और उनका मूल रूप, उनका दर्शन शिवलिंग के रूप में परिदर्शित होता है.
हंटर मध्यदेश के बाहर रहने वाली जातियों को ट्राईब ही मानते हैं, जो बंगाल में यानी, उस वक्त के बिहार बंगाल और ओड़िसा सहित सुदूर आंध्र प्रदेश और दक्षिण के अन्य राज्यों तक फैले थे. हम उन्हें द्रविड़ जातियों के रूप में भी देखते हैं. गौरतलब यह है कि उत्तर भारत में जहां तमाम भाषायें एक ही भाषा परिवार की सदस्य है, वहीं दक्षिण भारत में प्रचलित चार भाषायें- तेलुगु, तमिल, कन्नर और मलयाली चार अलग-अलग भाषा परिवारों की सदस्य हैं. यह भी एक महत्वूपर्ण तथ्य है कि मुसलमानों के लंबे शासन काल के दौरान बड़ी संख्या में उत्तर भारत से गये हिंदुओं ने वहां बड़े बड़े राज्य स्थापित किये और भव्य मंदिर बनवाये. भाक्ति आंदोलन के दौरान उत्तर और दक्षिण को जोड़ने की कोशिशें हुई. फिर भी उत्तर और दक्षिण के बीच के फर्क को वहां जाते ही हम महसूस कर सकते हैं. दक्षिण में दशहरा और दुर्गापूजा नहीं होती. न रावण दहन होता है, न होलिका दहन.
































  1. My extensive travel as well as studies and living amongst the ASUR tribals of Jharkhand ,in different areas ,led me to an another dimension in my life as well as academically.

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